‘पानी भीतर पनसोखा’ पर चर्चा
सुशील कुमार जनपदीय संवेदना और गहरे राजनीतिक बोध के कवि – इन्द्र कुमार राठौर
‘यह आदमी होने की घड़ी है’ – सुशील कुमार
‘पानी भीतर पनसोखा’ – जाने माने कवि सुशील कुमार (झारखंड) का पांचवां कविता संग्रह है। इसे लोकोदय प्रकाशन लखनऊ ने प्रकाशित किया है। ‘लिखावट’ की ओर से संग्रह पर समीक्षा गोष्ठी का आयोजन किया गया। कवि व साहित्यकार मिथिलेश श्रीवास्तव (नई दिल्ली) के संयोजन-संचालन में संग्रह की कविताओं पर गहन विचार – विमर्श हुआ।
आलोचक इंद्र कुमार राठौर (रायपुर) ने सुशील कुमार की कविताओं पर कहा कि इनका मुख्य स्वर करुणा का है। संघर्ष बाद में आता है। कविता की वैचारिकी बुद्ध और मार्क्स दोनों से मिलकर बनती है । 70 के दशक में श्रीकांत वर्मा ने ‘मगध’ के द्वारा उस दौर की कारुणिक दशा को व्यक्त किया था। वर्तमान उससे ज्यादा भयावह और जटिल है । सुशील कुमार की कविताओं में भी करुणा, आवेग और बेचैनी है।
इंद्र कुमार राठौर ने सुशील कुमार की कई कविताओं को उद्धृत किया। उनका भाष्य करते हुए कहा कि इसमें गहन यथार्थ बोध है। यह अनुभव- जनित कविताएं हैं, जो जीवन व्यवहार से निकली हैं। मानवता को बचाने का स्वर है। प्रकृति से लेकर धरती तक की चिंता है। जनपद अपने द्वंद्व के साथ उपस्थित है। सुशील कुमार विकास के मिथ को तोड़ते हैं। जल, जंगल और जमीन का सौंदर्य रचते हैं। सार रूप में कह सकते हैं कि सुशील कुमार न सिर्फ जनपदीय कवि हैं बल्कि गहरे राजनीतिक बोध के कवि भी हैं।
युवा आलोचक कुमार सुशांत (हावड़ा) का कहना था कि सुशील कुमार के संग्रह की कविताएं 2016 से 2020 के बीच की हैं। उन्होंने कोरोना के समय को मानव समाज ने देखा। सुशील कुमार इस दौर के दुख, अकेलापन और अवसाद को लाते हैं। इनकी चिंता के मूल में समाज और जन है। मजदूरों की रोजी-रोटी चली गई। उन्हें पलायन करना पड़ा। सरकार ‘आपदा में अवसर’ ढूंढती रही। इन कविताओं में कवि की संवेदना देखी जा सकती है। सुशील कुमार कोरोना के दूसरे पक्ष जिसमें प्रकृति और पर्यावरण बेहतर हुआ, उस पर भी कविताएं रचते हैं।
कुमार सुशांत ने आगे कहा कि सुशील कुमार’ ‘ नहीं चाहिए हमें ऐसा वैश्विक गांव’ के कवि हैं। ये वैश्वीकरण के विरुद्ध जिस ‘आदिमता’ की बात करते हैं, उसमें एक खूबसूरत दुनिया की आकांक्षा है, जहां ‘घने जंगल’, ‘पक्षियों की तेज चहचहाहट’, ‘बच्चों की किलकारियां’, ‘खेतों की हरियाली’ अर्थात जगमगाता जीवन है। इस तरह कविताओं में जीवन राग गूंजता है।
इस समीक्षा गोष्ठी का आरंभ कौशल किशोर की टिप्पणी से हुआ। उन्होंने कहा कि ‘पानी भीतर पनसोखा’ हमारे खंडित समाज का बिम्ब है। ‘पानी’ जन और जीवन का प्रतीक है, वहीं ‘पनसोखा’ शोषण और सत्ता का। इस द्वंद भरे समय और समाज के यथार्थ को सुशील कुमार सहज-सरल तरीके से व्यक्त करते हैं। यही उनकी काव्य कला है । कविताओं में जनपद की आभा है। यह पठार, तराई, जंगल में बसे आदिवासियों का जनपद है। कविता के केंद्र में श्रमिक समाज है। उनका संघर्ष, स्वप्न और सौंदर्य सामने आता है।
कौशल किशोर का आगे कहना था कि सुशील कुमार की कविताओं का एक वैचारिक-दार्शनिक आधार है । बुद्ध से लेकर मार्क्स तक के विचार अंतर्धारा के रूप में हैं। इनमें प्रेम है तो प्रतिबद्धता और प्रतिरोध भी है। वहीं निज पीड़ा से लेकर पर पीड़ा की अनुभूति है। विदा, मां का जाना, दिदिया और सूरदास , मां के जन्मदिन पर आदि ऐसी अनेक कविताएं हैं। सुशील कुमार को इस कठिन समय का एहसास है। वह कहते भी हैं कि ‘कठिन समय की लड़ाइयां शेष हैं अभी’। उनका मानना है यह संघर्ष बाहरी ही नहीं, अंदर भी लड़ा जाना है।
इस मौके पर सुशील कुमार ने अपने संग्रह से दो कविताओं – ‘शाति पाठ’ और ‘प्रलय में लय ‘ का पाठ किया। वे कहते हैं – ‘मेरे शांति पाठ का ओम धरती है मेरी! उसे शांति से भर दो, करुणा से भर दो /..आग न देनी पड़े किसी को ऐसे कुसमय में /….प्रार्थनागाहों को रक्तिम होने से बचाना/ मुझे ईश्वर भेसधारियों से बचाना/ मेरा हृदय-कपट और खोलना/.. बस मुझे अकुंठ दया देना!’ और ‘राख हो जाएगी /देह एक न एक दिन/…जो बचा रहेगा अंत तक /वह यह जीवन है/असंख्य आपदाओं के बीच /प्रेम के कारण ही बचेगा/ जिसे बचना है यहां/… प्रेम ही तुम्हें प्रलय से लय में लगाए /..यह आदमी होने की घड़ी है।’ इस कार्यक्रम में महेंद्र नेह (कोटा, राजस्थान), डॉक्टर भरत प्रसाद (शिलांग) डॉक्टर डीएम मिश्रा (सुल्तानपुर) भास्कर चौधुरी (कोरबा) आदि की उपस्थिति रही।

